Wednesday, April 13, 2011

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं...

किताबो में बहुत पढ़ा की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं,


जब तक अपने छोटे से गाँव में रहा ,

तो यकीनन लगता था की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं,

दुसरे गाँव में भी किसी एक घर में कुछ अच्छा या बुरा होता था,

तो जाने अनजाने खबर हो ही जाती थी,

ख़ुशी की खबर से अच्छा लगता था तो दुःख की खबर में बुरा लगता था.

मगर जब से शहर आया हूँ,

ये उक्ति बेमानी सी लगती हैं,

दस सालो से जिस जगह में रहता हूँ,

अपने पडोसी को मैं खुद नहीं जानता हूँ.

उसके सुख दुःख में शरीक होने की बात तो दूर,

मैं उसका नाम तक नहीं जान पाया हूँ.

अपना घर और ऑफिस के अलावा,

सामाजिक होने का अर्थ मैं भूल सा गया हूँ.

मुझे भी अब तक समझ नहीं आया ,

की मैं भी ऐसा क्यूँ हो गया हूँ.

कहते हैं, " इन बड़े शहरो के ईट सीमेंट के दीवारों के पीछे ,

बहुत पढ़े लिखे और समझदार लोग रहते हैं."

मगर अब भी मैं ," मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं,"

का अर्थ इस दिल्ली शहर में रोज़ ढूँढता हूँ.

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