Monday, September 25, 2017

रावण - कुम्भकरण संवाद

"उठो , जागो लंका के वीर ,
आपदा आयी है ,
दो मनुज संग वानरों की सेना ,
लंका पर चढ़ आयी हैं।"

सुन रावण की आवाज ,
कुम्भ घोर निद्रा से जागा ,
आयी है कोई घनघोर विपदा लंकेश पर ,
मन ही मन विचारा। 

" हे , लंका के वीर शिरोमणि ,
  इस निद्रा को त्याग अब चिरनिद्रा की बारी है ,
  एक एक कर मारे गए सब कुल के वीर ,
  अब तुम्हारी बारी हैं। "

कुम्भकरण मुस्कराया ,
खूब अपने लिए खाना मँगवाया ,
छक कर खा पीकर बोला ,
" तुम शिवभक्त , परमज्ञानी भ्राता ,
  बताओ ,  कहाँ युद्ध के लिए जाना हैं। "

रावण ने सारी कथा बताई ,
सुनकर कुम्भकरण  बोला ,
" घोर अपराध किया तुमने भाई ,
किसी स्त्री का अपरहण,
बिलकुल भी क्षमायोग्य नहीं हैं ,
इसे बड़ा अपराध दुनिया में कोई नहीं हैं ,
इसलिए शायद अब ,
रावण कुल के विनाश की नौबत आयी हैं।
हे रावण , स्त्री इस जगत का आधार है ,
उसका एक एक आँसू प्रलय समान हैं। "

रावण बोला ,
" जानता हूँ भाई , अपराध मैंने किया हैं ,
  जगत माता सीता का  हरण किया है , 
  राक्षसों के पाप बढ़ गए थे ,
  सत्ता और शक्ति के मद में चूर हो गए थे ,
  अब राक्षस कुल का विनाश जरुरी हैं ,
  राम राज्य स्थापना के लिए हमारा जाना भी जरुरी हैं।
  स्त्री का जब जब भी अपमान होगा ,

  रावण का संहार जरुरी होगा। "

Friday, September 22, 2017

युग कवि - श्री रामधारी सिंह दिनकर को शत नमन।

मानव अपनी इच्छाशक्ति से , पहाड़ भी डिगा सकता हैं , रसातल समंदर के जाकर , मोती भी पा सकता हैं। गर ठान ने इक बार मन में , सभी चुनौतियाँ छोटी हैं , गर कदम उठा ले एक बार , सात लोक भी नाकाफी हैं। पहचान खुद को , अपनी राह बना , चलचलाचल फिर , कर्मो से खुद को ' महा मानव बना'। कह गए 'दिनकर ' बार बार ये , दीप्तिमान , हो प्रज्वल्लित , जीवन एक आहुति है , प्राणो में अपने तू ज्योत जगा। (हिंदी कविता के महान कवि रामधारी सिंह दिनकर जी के जन्मदिन - २३ सितम्बर पर श्रदांजलि स्वरुप लिखी चंद पंक्तियाँ)

Thursday, September 21, 2017

कनखेधार

बैठा था उतुंग शिखर " कनखेधार  " पर इक दिन , 
सामने हिमालय का दृश्य था , 
मनोरम , अति मनभावन , 
स्वर्ग सरीखा लग रहा था।  

कल कल करती कोसी नदी , 
सर्पीली होकर मद हरण करती अटल अडिग पहाड़ो का , 
अपने लय में शोर करती , 
शिवालय के जैसे पग पखार रही थी।  

रवि की आभा से हिमालय नए नए रंग बिखेरता , 
चीड़ के पेड़ो से लदे जंगल , 
छोटे छोटे सीढ़ीनुमा खेतो पर  किसान , 
एक जोड़ी बैलो को लेकर अपना पसीना बहा रहा था।  

दूर एक सड़क पर कुछ पो -पो की आवाज़ , 
इस शांत माहौल में जैसे खलल डाल रही थी , 
छितरे छितरे से गाँव , 
हर गाँव के जंगल में मंदिर, 
जैसे हर गाँव का अपना अपना भगवान लग रहा था।  

सांझ हुई , उतरा नीचे 
हिमालय भी अब सोने लगा था , 
अजीब अजीब छायाचित्रों से , 
अब जंगल भयावह लग रहा था।  

टिमटिमाते तारे संगी , 
चंद्र किरणे राह दिखा रही थी, 
नीचे जाकर फिर देखा " कनखेधार " को , 
वो जैसे मुस्करा रहा था।  

आओ कभी , बैठेंगे फिर " कनखेधार " 
जीवन का कुछ मर्म समझेंगे , 
जीवन की रफ़्तार के बीच , 
कुछ पल हम सिर्फ प्रकृति के साथ रहेंगे।  

( कनखेधार मेरे गाँव - कोटुली , जिला - अल्मोड़ा , उत्तराखंड का एक पहाड़ हैं जिससे हिमालय का विहंगम दृश्य दिखाई देता हैं , वास्तविक अनुभव को शब्दों में ढालने का प्रयास किया हैं। )  


Friday, September 15, 2017

मधुशाला

न अमीर , न गरीब ,
न कोई ऊँचा , न कोई नींचा ,
सबके लिए एक जैसा ,
ये मधु का प्याला ,
मन भेदो  को हरती ,
सुःख  -दुःख में एक सा ,
कोई मतभेद नहीं करती ,
ऐसी हैं सबकी - मधुशाला।


बदल रही  दुनिया ,
बदल रहे रिश्ते नाते ,
बदल रहे है पैमाने ,
बदल रही साकीबाला ,
स्वार्थ का हर जगह बोलबाला ,
मगर अटल सत्य,
सदा है , और रहेगा
जीवन जब तक ,
गुलजार रहेगी मधुशाला।  


(" मधुशाला " के रचनाकार श्री हरिवंश राय बच्चन जी को समर्पित। ) 

Thursday, September 14, 2017

हिंदी दिवस

हिंदी को दोयम दर्जा देने वालो , 
आज तुम्हे बतलाता हूँ , 
हिंदी में सोच कर अंग्रेजी बोलने वालो , 
आज तुम्हे चेतना देता हूँ।  

संस्कृत की बेटी हिंदी , 
हमारा आधार हिंदी , 
जन - जन की हिंदी , 
हिंदुस्तान की धड़कन हैं हिंदी।  

सशक्त है हिंदी ,
प्रकृति की सरल है हिंदी , 
जैसी लिखी जाती है हिंदी , 
वैसी ही बोली जाती है हिंदी।  

आदिकाल से आधुनिक काल तक , 
निरंतर बहती सी हैं हिंदी , 
विद्यापति की हिंदी , 
तुलसीदास और सूरदास की हिंदी , 
केशवदास की हिंदी , 
दिनकर , पंत , प्रेमचंद और गुप्त की हिंदी।   

कितनी भाषाओ को समेटे , 
माँ का सा बर्ताव करती हिंदी,   
बनते बिगड़ते रिश्तो को अपने में , 
सिमटाते सिमटाते राजभाषा का दर्जा पायी हिंदी,  
नौनिहालों से उपेक्षित हिंदी , 
परायो का सम्मान पाती हिंदी, 
बेरोकटोक बढ़ रही हिंदी।     

Tuesday, September 12, 2017

खिलने दो , महकने दो

खिलने दो , महकने दो ,
हमको भी जीने दो ,
खुदा ने भेजा हैं हमको ,
बड़ी रहमतो और मुद्दत के बाद ,
हमको भी जीने दो।

कलियाँ हैं हम , 
हमें भी फूल बनने दो , 
यूँ बेरहमी से मत कुचलो , 
कुछ तो उस खुदा से डरो।  

डरा डरा सा बचपन बीत रहा , 
क्यों हर जगह इंसान रुपी जानवर दिख रहा ?
क्या कसूर हैं हमारा  ?
कोई हमें नहीं बतला रहा।  

सब कहते हैं हम देश का भविष्य हैं , 
क्यों फिर भविष्य इतना डर में पल रहा ?
महफूज नहीं जगह कोई , 
क्यों हर जगह अंधकार पसर रहा।  

खिलने दो , महकने दो 
हमें भी सपने पूरे करने दो , 
हमें भी पूरा जीवन जीना हैं , 
इतना तो रहम करो।  

Thursday, September 7, 2017

बचपना




बड़प्पन का लबादा ओढ़े बहुत दिन हो गए , 
चलो थोड़ा बचपना करते  है।
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से उकता गए हैं , 
थोड़ा आवारागर्दी का लुफ्त उठाते हैं।  

सोचने का काम दुसरो को देकर , 
चलो , बिना बात के खिलखिलाते हैं।
मन जरा हल्का करते हैं , 
चलो थोड़ा बच्चा बनते हैं ।   

है ज़िन्दगी में कई समस्याएं , 
है होगी कल की फिक्र , 
है जिम्मेदारियों का बोझ बहुत , 
कभी कभी इनको थोड़ा अनदेखा करते है , 
चलो , थोड़ी देर  ज़िन्दगी से कुछ पल चुराते हैं ,
आओ की , थोड़ा बचपना फिर जीते है। 

Wednesday, September 6, 2017

लक्ष्य



धीरे धीरे ही सही , 
आगे बढ़ रहा हूँ।  
रुक रुक कर ही सही , 
पैरो को अपने साध रहा हूँ। . 

आते हैं अवरोध , 
मगर उद्देश्य को हमेशा याद रखता हूँ ।    
सुनाने वाले बहुत हैं , 
मगर हर बात को दिल पर नहीं लेता हूँ।  

मुझे अपने पर यकीन हैं , 
ईश्वर को हमेशा साथ रखता हूँ।  
शुभचिंतको की दुआएँ बहुत हैं , 
इसलिए हर बार गिरकर उठता हूँ।  

देर होगी मगर अंधेर नहीं , 
हर निराशा का अंत करता हूँ।  
थोड़ा पीछे रह भी गया अभी तो क्या , 
दौड़ के अंत में अपनी विजय देखता हूँ।